संतो की समाधि क्या होती है और इसका क्या महत्व है इस पर आज थोड़ा प्रकाश डालना चाहूंगा –
संतों की समाधि बनाई जाती है क्योंकि यह उनके आध्यात्मिक अभियान का महत्त्वपूर्ण अंग है। समाधि एक आध्यात्मिक अवस्था है जिसमें संत अपने मन को प्रशांत, स्थिर और विश्रामित करते हैं और ईश्वर के साथ एकात्मता का अनुभव करते हैं। इस अवस्था में, वे अपनी आत्मा के साथ संयोग स्थापित करते हैं और आध्यात्मिक सत्य को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करते हैं।
संत अपने मन को शांत करने और विचारों को निग्रह करने के माध्यम से आंतरिक शांति की प्राप्ति करते हैं। इसमें विभिन्न आध्यात्मिक अभ्यास जैसे ध्यान, जप, प्रार्थना और स्वाध्याय शामिल हो सकते हैं। संत समाधि के माध्यम से अपनी आत्मा के साथ एकात्मता का अनुभव करते हैं। इस प्रकार, वे अपने सत्य स्वरूप को प्रकट करते हैं और आत्मानुभूति का आनंद लेते हैं।
यजुर्वेद में कहा गया है
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं
यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तं ह देवं आत्मबुद्धिप्रकाशं
मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये॥
जो पुराणों को जानने वाला, जो वेदों के अंशों को प्रचारित करने वाला है, उस देवता को मैं आत्मबुद्धि का प्रकाशक, मुमुक्षुओं का आश्रय हूँ, उसी की शरण में आत्मसमर्पण करता हूँ।
ये तपोऽयं योगः,
सन्तस्तपस्यन्तो विजितात्मनः।
अरातीं जीर्णां परित्यजन्तः स्वयं वृजिनं च विजितात्मनं च॥
अर्थ: वेद उनकी शिक्षा है, तप साधना है, योग उनकी अभ्यास प्रणाली है, संत आत्मा को जीतने में सामर्थ्यपूर्ण होते हैं। वे संसारिक मोह को छोड़ देते हैं, अपने शरीर को छोड़ देते हैं, और अपनी जीती हुई आत्मा को प्रकट करते हैं।
यह श्लोक संतों के आध्यात्मिक साधना, तपस्या, और योगाभ्यास के महत्त्व को बताता है। वे वेदों की शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं, संसारिक आसक्तियों को छोड़कर जीवन बिताते हैं, और अपनी जीती हुई आत्मा को प्रकट करते हैं।
वेदों में संतों के समाधी लेने के विषय में कई श्लोक हैं, जो उनके आध्यात्मिक साधना और प्रगति के महत्त्व को व्यक्त करते हैं। जब कोई संत समाधी लेता है तो उसके विचार कितने उच्च होते हैं उनके आध्यात्म ज्ञान की पराकाष्ठा का का अंदाजा वेदों की इन चार लाइनों से लगाया जा सकता है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
तदेतत् सर्वाणि भूतान्यादित्येनेव प्रतिष्ठितानि।
तस्मात्पुरुषं वेदाहं तद्ब्रह्मेति।
सभी प्राणियों का उत्पत्ति और स्थिति सूर्य द्वारा ही स्थापित होती है। इसलिए मैं उस पुरुष को जानता हूँ, और वही ब्रह्म है।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
अहं विश्वस्य मातरः पितरश्च प्रतिष्ठितः।
यस्य मे अस्ति शिरो भागः सुश्नो योषाधि विश्वरूपाः॥
अर्थात मैं विश्व की माता और पिता हूँ, और मेरे शिर का भाग सर्वश्रेष्ठ औषधियों से युक्त है, जो विश्वरूप कहलाती हैं।
अत्र सम्राज्ये भवति चक्षुषा विचच्ये
अप्रमत्ते मनसा तवेष आशाः।
तवेदं विश्वं भगवन्तमादित्यं
तवेतमेकं परिणोदयन्ति सर्वे॥
यहां तू संपूर्ण विश्व का स्वामी है, जिसे देखकर ही मन और चित्त आनंदित होते हैं, जिसकी आशा मनुष्य की प्रमथनता से रहित होती है।
सचिन तिवारी