मुख्य संपादक सचिन तिवारी
महाकुंभ: त्याग और तपस्या का केंद्र या दिखावे का मंच?
महाकुंभ, भारतीय संस्कृति और धर्म का एक अद्वितीय पर्व है, जहां अध्यात्म, त्याग, तपस्या और आत्मचिंतन के अद्भुत स्वरूप को साकार होते देखा जाता है। यह आयोजन सदियों से हमारी परंपराओं और मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता आ रहा है। परंतु आज के दौर में, इस पवित्र आयोजन को कुछ लोग अपनी भौतिक इच्छाओं और दिखावे का मंच बना रहे हैं, जो चिंता का विषय है।
महाकुंभ का मूल उद्देश्य आत्मसाक्षात्कार, अध्यात्मिक शांति, और मानवता को सत्य, अहिंसा, त्याग व तपस्या की ओर प्रेरित करना है। संतों, साधुओं और साधकों के संगम से यह आयोजन भक्तों को प्रेरित करता है कि वे सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठकर जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझें। यह वह स्थल है, जहां जाति, धर्म और वर्ग से परे एक समानता का अनुभव होता है।
लेकिन आज, इस दिव्यता के केंद्र में भौतिकता और दिखावा हावी होता नजर आ रहा है। जहां तपस्वियों के लिए त्याग की चर्चा होनी चाहिए, वहां आज नारी सुंदरता की बातों और राजसी टेंट की सजावट के चर्चे हो रहे हैं। किस महाराज के पास कितने वीआईपी भक्त हैं, किसका तंबू सबसे बड़ा और शाही है—ये विषय मुख्य चर्चा का केंद्र बन गए हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि तप और साधना के इस पर्व को भौतिकता का प्रतीक बनाने की कोशिश हो रही है। मीडिया और सोशल मीडिया पर ध्यान आकर्षित करने के लिए कुछ लोग इसे ग्लैमर और प्रदर्शन का मंच बना रहे हैं। बड़े-बड़े तंबू, आलीशान व्यवस्थाएं और दिखावटी आयोजनों से महाकुंभ का मूल स्वरूप धूमिल हो रहा है।
महाकुंभ का असली उद्देश्य लोगों को आत्मचिंतन और साधना के रास्ते पर ले जाना है। यह आयोजन हमें यह सिखाने के लिए है कि सच्चा सुख और शांति त्याग और तपस्या में निहित है, न कि भौतिक संपत्तियों और दिखावे में।
ऐसे में, हम सभी का दायित्व है कि हम महाकुंभ की पवित्रता और दिव्यता को बनाए रखने में योगदान दें। आयोजकों, संतों, और आम श्रद्धालुओं को मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह आयोजन त्याग, साधना और अध्यात्म के मूल्यों का सच्चा प्रतीक बना रहे।
समाज को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। हमें यह तय करना होगा कि महाकुंभ केवल दिखावे और प्रदर्शन का माध्यम न बने। संत-महात्मा, श्रद्धालु, और प्रशासन सभी को मिलकर इसे अध्यात्म और साधना के मूल उद्देश्य के प्रति समर्पित करना होगा।
महाकुंभ केवल एक मेला नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता का जीवंत उदाहरण है। इसे बाजारवाद, भौतिकता और दिखावे की संस्कृति से बचाने की आवश्यकता है। त्याग और तपस्या के इस पर्व को हमें उसकी मूल आत्मा के साथ बनाए रखना होगा, ताकि यह आयोजन आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बना रहे।