मुख्य संपादक सचिन तिवारी की कलम से.
पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानी जाती है। इसका प्रमुख कार्य सत्ता की नीतियों और समाज की गतिविधियों का विश्लेषण करना, जनता को जागरूक बनाना और गलत नीतियों की आलोचना करना है। आलोचना, पत्रकारिता की आत्मा होती है, क्योंकि इसके बिना समाज में जवाबदेही और पारदर्शिता नहीं रह सकती। लेकिन आज के दौर में आलोचना को बर्दाश्त करने की प्रवृत्ति लगातार घटती जा रही है। विशेष रूप से, राजनेताओं और सत्ताधारी शक्तियों को आलोचना हजम नहीं होती। वे इसे बुराई समझते हैं और पत्रकारों की आवाज को दबाने का हरसंभव प्रयास करते हैं।
आलोचना का उद्देश्य किसी की छवि खराब करना या किसी का अपमान करना नहीं होता, बल्कि गलतियों को उजागर कर उन्हें सुधारने की दिशा में ले जाना होता है। एक जिम्मेदार पत्रकार जब किसी सरकारी नीति, प्रशासनिक फैसले या सामाजिक समस्या की आलोचना करता है, तो वह समाजहित में ऐसा करता है। आलोचना लोकतंत्र को मजबूत बनाने का एक माध्यम होती है, क्योंकि यह सरकारों और संस्थानों को अपनी नीतियों और कार्यशैली पर आत्ममंथन करने के लिए प्रेरित करती है।
स्वस्थ समाज वही होता है, जहाँ खुली बहस और तर्कसंगत आलोचना को स्थान दिया जाता है। लेकिन यदि आलोचना को बर्दाश्त न किया जाए और उसे सरकार या किसी नेता के विरोध के रूप में देखा जाए, तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।
आलोचना और बुराई के बीच मूलभूत अंतर को समझना आवश्यक है। आलोचना तर्कसंगत और तथ्यों पर आधारित होती है, जबकि बुराई का उद्देश्य किसी को नीचा दिखाना या व्यक्तिगत आक्षेप लगाना होता है। जब कोई पत्रकार किसी नीति की आलोचना करता है, तो वह तटस्थ दृष्टिकोण से करता है, जबकि बुराई करने वाला व्यक्ति अक्सर व्यक्तिगत आक्षेप या दुर्भावना से प्रेरित होकर बयान देता है।दुर्भाग्य से, आज सत्ता में बैठे कई लोग आलोचना और बुराई के इस अंतर को समझने में असमर्थ हैं। वे हर आलोचना को विरोध या षड्यंत्र के रूप में देखते हैं और उसे दबाने का प्रयास करते हैं।
आजकल पत्रकारों की स्वतंत्रता पर लगातार हमले हो रहे हैं। कई बार सरकारें और राजनेता मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। जो पत्रकार सत्ता की आलोचना करता है, उसे तरह-तरह से डराने-धमकाने का प्रयास किया जाता है। कई बार पत्रकारों पर कानूनी कार्रवाइयाँ की जाती हैं, तो कई बार उन्हें सोशल मीडिया ट्रोलिंग और हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है।
ऐसी स्थितियाँ लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा हैं। जब पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से अपनी बात कहने से रोका जाएगा, तो सच सामने नहीं आ पाएगा। मीडिया का मूल कार्य सरकारों और संस्थाओं की जवाबदेही तय करना होता है, लेकिन यदि उसे ही दबा दिया जाएगा, तो लोकतांत्रिक व्यवस्था का संतुलन बिगड़ जाएगा।
पत्रकारिता की असली शक्ति उसकी निष्पक्षता और निर्भीकता में होती है। यदि पत्रकार डरकर सच को सामने लाने से हिचकने लगें, तो जनता तक सटीक जानकारी नहीं पहुँच पाएगी। लोकतंत्र तभी मजबूत रह सकता है जब आलोचना को एक सुधारात्मक प्रक्रिया के रूप में देखा जाए, न कि किसी साजिश या अपमान के रूप में।
लोकतंत्र में आलोचना का स्थान महत्वपूर्ण होता है। स्वस्थ समाज और पारदर्शी शासन के लिए जरूरी है कि पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाए। सत्ता में बैठे लोगों को यह समझना चाहिए कि आलोचना का उद्देश्य बुराई करना नहीं, बल्कि सुधार की संभावनाएँ तलाशना है। यदि आलोचना को बर्दाश्त न किया गया और पत्रकारों की आवाज को दबाने की कोशिश जारी रही, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। इसलिए, आलोचना और बुराई के अंतर को समझना और उसे स्वीकार करना ही लोकतांत्रिक मूल्यों को सशक्त बनाएगा।