आजकल “सनातन” का नाम सुनते ही कुछ लोगों के चेहरे पर आस्था नहीं, बल्कि कारोबार की चमक उभर आती है। कोई भी समस्या हो — समाधान तैयार है: गौशाला ,ट्रस्ट, गुरुकुल, वृद्धाश्रम, या धर्मरक्षा संस्था। नाम बड़ा होना चाहिए, बाकी काम छोटा भी चलेगा! इन स्वयंभू धर्मरक्षकों ने धर्म को ऐसा फॉर्मूला बना दिया है जिसमें थोड़ी सी भावनाएँ, थोड़ा सा चंदा और ढेर सारा दिखावा मिलाकर “सनातनी चूरन” तैयार कर देते हैं — जनता को परोसने के लिए।
जिस सनातन धर्म ने सिखाया कि सेवा निष्ठा से करो, वे अब सोशल मीडिया पोस्ट और कैमरे के फ्लैश में सेवा करते हैं। गुरुकुलों की आड़ में शिक्षा से ज़्यादा ‘डोनेशन स्कीम’ पढ़ाई जा रही है। गौशालाओं में गायें नहीं मिलतीं, बस बिल और खाता दिखते हैं। वृद्धाश्रम तो ऐसे चल रहे हैं मानो किसी ने बुजुर्गों के नाम से एटीएम कार्ड बना लिए हों। और फिर यह सब कहते हैं – “हम सनातन बचा रहे हैं।” असल में ये लोग सनातन नहीं, अपने बैंक बैलेंस बचा रहे हैं।
धर्म अब माइक के भाषणों और दान पेटियों में बंद हो गया है। असली सनातनी अब भी गली-मोहल्लों में चुपचाप सेवा कर रहा है, बिना प्रचार, बिना फंडरेजिंग के। मगर अफसोस, उसकी आवाज़ इन ‘सनातनी ठेकेदारों’ की चकाचौंध में दब जाती है।
अब वक्त आ गया है कि जनता आँखें खोले और असली व नकली सनातनियों में फर्क करे। क्योंकि धर्म को खतरा बाहर से नहीं, बल्कि भीतर के इन चूरन विक्रेताओं से है, जो हमारे विश्वास की मिठास में धोखे का स्वाद मिला चुके हैं।
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