अक्षय तृतीया सनातन परंपरा में एक महत्वपूर्ण त्यौहार है जो हर कार्य की शुरुआत के लिए शुभ माना जाता है। इस दिन नई चीजों को खरीदने का महत्व शास्त्रों में बताया गया है। अक्षय तृतीया के शुभ दिन पर सोना चाँदी खरीदना बेहद शुभ माना जाता है। कहा जाता है कि इस दिन माँ लक्ष्मी की पूजा करने से विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है। अक्षय तृतीया का मतलब है ऐसी तिथि से है जिसका कभी भी क्षय नहीं होता या जो कभी खत्म नहीं होती। अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर नया कार्य करना बेहद शुभ माना जाता है। कहा जाता है कि इस पुण्यदायी तिथि पर ब्राह्मणों तथा दीन-हीन, असहाय लोगों को दान देने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। अक्षय तृतीया का धार्मिक महत्व कई मायनों में खास है। इस दिन को युगादि तिभि भी माना जाता है। अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में धरती पर अवतार लिया था। महाभारत की कथा के अनुसार, अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को अक्षय पात्र दिया था, जिसमें भोजन कभी भी समाप्त ही नहीं होता था। उस पात्र में बने भोजन से एक बार में वहां उपस्थित सभी लोग भोजन प्राप्त कर सकते थे। इसलिए द्रौपदी उस पात्र की सहायता से पांडवों के अतिरिक्त जरुरतमंद लोगों को भोजन कराती थीं। अक्षय तृतीया के दिन ही माँ गंगा का अवतरण इस धरती पर हुआ था और त्रेतायुग की शुरुआत हुई थी। इसलिए इस दिन को एक शुभ दिन माना जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्त्व बताया है । वे कहते हैं,
अस्यां तिथौ क्षयमुपैति हुतं न दत्तं
तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया ।
उद्दिश्य दैवतपितॄन्क्रियते मनुष्यैः
तच्चाक्षयं भवति भारत सर्वमेव ।।
अर्थात, इस तिथि को दिए हुए दान तथा किए गए हवन का क्षय नहीं होता । इसलिए मुनियों ने इसे ‘अक्षय तृतीया’ कहा है । देवों तथा पितरों के लिए इस तिथि पर जो कर्म किया जाता है, वह अक्षय; अर्थात अविनाशी होता है ।’अक्षय तृतीया के दिन दिए गए दान का कभी क्षय नहीं होता । अक्षय तृतीया के दिन पितरों के लिए आमान्न अर्थात दान दिए जाने योग्य कच्चा अन्न, उदककुंभ; अर्थात जल भरा कलश, ‘खस’ का पंखा, छाता, पादत्राण अर्थात जूते-चप्पल आदि वस्तुओं का दान करने के लिए पुराणों में बताया है ।अक्षय तृतीया के दिन किए दान से व्यक्ति के पुण्य का संचय बढता है । पुण्य के कारण व्यक्ति को स्वर्गप्राप्ति हो सकती है; परंतु स्वर्गसुख का उपभोग करने के उपरांत पुनः पृथ्वी पर जन्म लेना पडता है । मनुष्य का अंतिम ध्येय ‘पुण्यप्राप्ति कर स्वर्गप्राप्ति करना’ ही नहीं; अपितु ‘पाप-पुण्य के परे जाकर ईश्वरप्राप्ति करना’ होता है । इसलिए मनुष्य को सत्पात्रे दान करना चाहिए । सत्पात्र व्यक्ति को दान करने पर यह कर्म ‘अकर्म कर्म’ हो जाता है तथा ऐसा करने से मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति होती है, अर्थात वह स्वर्गलोक में न जाकर उच्चलोक में जाता है ।