जन्म से पोलियो से ग्रसित सुरेंद्र लाल ने अपनी शारीरिक अक्षमता को कभी अपनी प्रतिभा पर आघात नहीं बनने दिया। कर्णप्रयाग के सिमली राड़खी निवासी सुरेंद्र ने पैरों की जगह प्लास्टिक के डब्बे पहनकर बड़े मंचों पर लोक कला की प्रस्तुति देकर यह संदेश दिया है कि मन में यदि चाह हो, तो हर बाधा पथ प्रदर्शक बन सकती है।
सुरेंद्र ने कठिनाइयों से जूझते हुए भी लोक कला को अपना हथियार बनाया। बचपन में ही उन्होंने अपनी माँ को खो दिया और गरीबी ने परिवार को घेर लिया, लेकिन अपने अंदर संगीत और कला की लौ को जलाए रखा।
लोक जागृति विकास संस्था से जुड़ने के बाद सुरेंद्र ने 1996 में अपने करियर की शुरुआत की, और पहली बार गौचर मेले में उन्होंने “धका धक गढ़वाल” की प्रस्तुति दी, जिसके बाद लोगों ने उनके नाम के आगे “कमांडर” जोड़ दिया।
उनकी कला की सराहना उत्तराखंड वॉयस पुरस्कार द्वारा भी हुई। उन्होंने केवल उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि दिल्ली, हरियाणा समेत कई राज्यों में लोकगीतों और ढोल की प्रस्तुति दी है।
सुरेंद्र कहते हैं, “मन की शक्ति जब मजबूत हो, तो शारीरिक कमी मायने नहीं रखती।” उनके संघर्ष और संगीत ने आज इस संदेश को जन-जन तक पहुंचाया है कि इच्छाशक्ति और लगन से हर मंज़िल पाई जा सकती है।