भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं विश्व में अपनी गहराई और प्राचीनता के लिए जानी जाती हैं। इन्हीं में से एक है गुरु-शिष्य परंपरा, जिसे सनातन धर्म की आत्मा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सनातन संस्था द्वारा प्रकाशित एक विशेष लेख में इस दिव्य परंपरा की महत्ता और वर्तमान प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला गया है।
लेख में कहा गया है कि जीवन की समस्याओं, मानसिक तनाव और आध्यात्मिक दिशा की खोज में ‘गुरु’ ही शिष्य को मार्ग दिखाते हैं। यह परंपरा केवल ज्ञान देने तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मा के उत्थान, चरित्र निर्माण और मोक्ष की ओर अग्रसर करने का साधन है।
गुरु का स्वरूप और भूमिका
‘गुरु’ शब्द का अर्थ है— अंधकार को दूर कर प्रकाश की ओर ले जाने वाला। गुरु न केवल ज्ञान का स्रोत होता है, बल्कि वह ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समरूप भी होते हैं।
“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥”
यह श्लोक गुरु की महिमा को सर्वोच्च स्थान देता है।
लेख में यह भी कहा गया कि गुरु, ईश्वर का साकार रूप होते हैं और शिष्य यदि भक्ति, सेवा और त्याग भाव से गुरु की सेवा करे, तो वह सेवा ईश्वर तक पहुँचती है – जैसे स्थानीय बैंक शाखा में जमा किया धन मुख्यालय में दर्ज होता है।
शिष्य का स्वरूप
एक सच्चा शिष्य वह होता है, जिसमें सीखने की तीव्र इच्छा हो, श्रद्धा हो और वह गुरु के आदेशों को आत्मसात करने के लिए समर्पित हो। अहंकार का त्याग और आज्ञाकारिता ही सच्चे शिष्य के लक्षण हैं।
गुरुकुल परंपरा और ऐतिहासिक उदाहरण
भारत में प्राचीन शिक्षा प्रणाली ‘गुरुकुल’ व्यवस्था पर आधारित थी, जहाँ शिक्षा केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं थी। श्रीराम ने वशिष्ठ व विश्वामित्र से, तो श्रीकृष्ण ने ऋषि सन्दीपनि से शिक्षा प्राप्त की थी।
गुरु-शिष्य परंपरा का आध्यात्मिक पक्ष
गुरु न केवल शास्त्रों का ज्ञाता होता है, बल्कि शिष्य की आत्मा का चिकित्सक भी होता है। श्री शंकराचार्य ने कहा है कि गुरु की उपमा त्रिभुवन में कहीं नहीं मिलती – वे पारस से भी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे केवल शिष्य को स्वर्ण नहीं बनाते, बल्कि अपना दिव्यत्व भी प्रदान करते हैं।
वर्तमान समय में स्थिति
आधुनिक शिक्षा प्रणाली में यह परंपरा धूमिल हो रही है। आज शिक्षक-छात्र संबंध केवल शैक्षणिक दायरे में सिमट गया है, हालांकि योग, संगीत और आध्यात्मिक क्षेत्रों में यह परंपरा अब भी जीवित है।
निष्कर्ष
सनातन संस्था का यह लेख स्पष्ट करता है कि गुरु-शिष्य परंपरा केवल ज्ञान का लेन-देन नहीं, बल्कि आत्मा से आत्मा का संबंध है। यदि यह परंपरा पुनः सशक्त हो, तो शिक्षा केवल आजीविका का साधन न रहकर जीवन को दिशा देने का माध्यम बन सकती है।
गुरु पूर्णिमा के अवसर पर यह लेख अध्यात्म और परंपरा की दिशामें एक प्रेरणादायक संदेश है।